भारत विश्व का सबसे बड़ा लोकतांत्रिक देश है। राजनीतिक और आर्थिक विकास के चलते सामाजिक जटिलताओं में बढ़ोतरी हुई है जिसकी वजह से अपराध काफी बढ़ गए हैं। इन काबू करने के लिए कई कानून बनाए गए हैं जिनको मद्देनज़र रखते हुए पुलिस काम करती है। कई बार कुछ मामलों में कानून से बाहर जाकर या कहा जाए ‘एक्स्ट्रा जुडीशल किलिंग’ भी की गई हैं जिसे एनकाउंटर का नाम दिया गया है। अब सवाल यह पैदा होता है कि क्या ऐसा करना सही है?
पहले एनकाउंटर की गिनती काफी कम थी। किसी गंभीर स्थित में अपने बचाव में एनकाउंटर हुए। 1990-2000 के बीच मुम्बई पुलिस ने अंडरवर्ल्ड और कई रैकेट को खत्म करने के लिए एनकाउंटर किए। पुलिस जिसे ‘एनकाउंटर स्पेशलिस्ट’ कहा गया उनका मानना था कि “एनकाउंटर जल्द जस्टिस देते हैं।” तब से 2003 तक पुलिस ने 1200 अपराधी मारे।
कई मामलों में झूठे एनकाउंटर देखे गए हैं। डेटा बताता है अक्तूबर 1993 से अब तक 2560 केस ‘नेशनल हिउमन राइट्स कमिशन’ के सामने लाए गए हैं। एन.एच.आर.सी के मुताबिक 1224 केस झूठे एनकाउंटर के रहे।
० मुजरिम का जुर्म साबित करके उसे सज़ा देना, इंसाफ का ज़रूरी ही नही बल्कि अभिन्न हिस्सा है।
०सरकारी अधिकारियों के द्वारा जल्दी इंसाफ की सामाजिक सविकृति के कारण ‘एक्स्ट्रा जुडीशल किलिंग’ होती हैं। उदाहरण: विकास दुबे एनकाउंटर।
०जल्द इंसाफ के लिए पुलिस को एनकाउंटर के लिए बढ़ावा देना या इसको बर्दाश्त करना मासूम लोगों की मौत का कारण बन सकता है।
० एसी मोतों का साथ देने से समाज में इंसाफ नही होता। बल्कि कई ज़रूरी राज़ दफन हो जाते हैं।
०जब कानून के रखवाले कानून के साथ खिलवाड़ करते हैं तो उसका समाज में बुरा असर होता है और लंबे समय तक रहता है।
शीतल महाजन